कैसे एक घरेलु महिला बन गईं बिजनेस वुमन? मीरा गुजर की सफलता की दुर्लभ कहानी

वक़्त और हालात कब बदल जाएं, ये कोई नहीं जानता। लेकिन काफी हद तक हमारी जिंदगी की दिशा इस बात पर निर्भर करती है कि हम मुश्किल हालात का सामना कैसे करते हैं। महाराष्ट्र के सतारा जिले की रहने वाली मीरा गुजर की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। वक़्त और हालात से लड़कर मीरा ने न सिर्फ अपने परिवार को टूटने से बचाया, बल्कि पुरुषों के व्यवसाय में भी अपना परचम लहराया। आज मीरा एक सफल उद्यमी हैं, और उनके संघर्ष की कहानी सुनकर कोई भी प्रेरित हुए बिना नहीं रह सकता।

मीरा सिर्फ 19 साल की थीं जब 1985 में उनकी शादी मिलिंद से हुई। कम उम्र में शादी हो जाने की वजह से वो अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाईं। उनका ससुराल संपन्न था और उनके पति उनका काफी ध्यान रखते थे। मीरा अपनी जिंदगी से काफी खुश थीं। शादी के एक साल बाद ही 1986 में उन्हें एक बेटी हुई और उसके दो साल बाद 1988 में बेटा हुआ। मीरा का परिवार पूरा हो गया और जिंदगी की गाड़ी हँसते-मुस्कुराते आगे बढ़ने लगी।

लेकिन मीरा की ये खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं रही। समय ने करवट बदला और एक दिन ऐसा हादसा हुआ, जिसने उनकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल दी। अगस्त 1991 में उनके पति का हार्ट अटैक से निधन हो गया। हमेशा घर-परिवार के साए में रहने वाली मीरा पर अचानक जिम्मेदारियों का बोझ आ गया। उनके पति सीमेंट के बिज़नेस में थे, लेकिन इसके बारे में उन्होंने मीरा से कभी ज्यादा बात नहीं की थी। दरअसल, इस काम में महिलाओं की ज्यादा रूचि नहीं रही है और ना ही यह ऐसा काम था जिसके बारे में मीरा को जानने की जरूरत थी।

लेकिन पति के निधन के बाद घर की पूरी ज़िम्मेदारी मीरा के कंधों पर आ गई। मीरा महज 25 साल की थीं जब मिलिंद उन्हें छोड़ कर चले गए। दो छोटे बच्चों की परवरिश और सास-ससुर की देखभाल के लिए पैसों की ज़रूरत थी। उनके रिश्तेदारों ने उनकी दूसरी शादी का प्रस्ताव रखा, लेकिन मीरा इसके लिए तैयार नहीं थीं। उन्होंने बताया, “मेरे पति की यादों के सहारे मैं अपनी पूरी जिंदगी गुज़ारने के लिए तैयार थी। मुझे तो बस इस बात की चिंता थी कि मैं बच्चों की परवरिश कैसे करूँगी, घर की ज़िम्मेदारी कैसे निभाऊंगी।”

शुरू में, मीरा ने कंप्यूटर स्टेशनरी का काम किया, लेकिन इसमें उन्हें कामयाबी नहीं मिली। फिर उन्होंने कैंडल प्रोडक्शन का काम किया। कुछ दिनों तक यह ठीक-ठाक चला, लेकिन इससे इतनी आमदनी नहीं हो पाती थी कि वो घर चला सकें। कैंडल बनाने के लिए ज़रूरी वैक्स को लेकर भी बाजार में कई तरह की दिक्कतें थीं। अब उनके पास अपने पति का बिज़नेस संभालने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था।

इस दौरान मीरा को उनके सास-ससुर का पूरा सहयोग मिला, और उन्होंने एक बार फिर इस काम को आगे बढ़ाने का फैसला किया। मीरा ने बताया, “मैंने घर के ही एक कमरे में ऑफिस शुरू किया। मैं साथ ही साथ थोड़ा बहुत कैंडल बनाने का भी काम करती थी। लेकिन घर और ऑफिस का काम और दो छोटे बच्चों की ज़िम्मेदारी संभालना बहुत मुश्किल था।”

कुछ पुरानी जान-पहचान और अपने हौसले के दम पर मीरा ने इस काम में धीरे-धीरे आगे बढ़ना शुरू किया। लेकिन टेम्पो ड्राइवर्स, वर्कर्स, और डीलर्स के साथ काम करना और उनसे तालमेल बिठाना सीमेंट बिज़नेस की सबसे बड़ी दिक्कतें थीं। डीलर्स मीट या किसी कांफ्रेंस में जाने में उन्हें काफी डर लगता था और हिचकिचाहट होती थी, क्योंकि वहां एक भी महिला नहीं होती थी। लेकिन फिर धीरे-धीरे उन्होंने अपने डर पर काबू पाया।

समय बीतता गया और मीरा के हालात भी बदलने लगे। समाज के सवालों को पीछे छोड़ते हुए मीरा ने अपनी पूरी लगन और मेहनत अपने उद्यम को आगे बढ़ाने में लगा दी। आखिरकार, गुजरते वक्त के साथ मीरा का अनुभव भी बढ़ता गया और उन्हें कामयाबी मिलने लगी। मीरा एक सफल उद्यमी बन गईं।

मीरा को उनके काम के लिए 2006 में महिला एवं बाल कल्याण समिति की तरफ से आदर्श महिला पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 2008 में उन्हें स्वयंसिद्ध पुरस्कार और 2015 में रोटरी क्लब की ओर से व्यवसाय सेवा पुरस्कार से नवाज़ा गया। मीरा ने सफल उद्यमी बनने के साथ-साथ अपने परिवार की भी जिम्मेदारियां बखूबी निभाईं। उनकी बेटी की शादी हो गई है और उनका बेटा आज बिज़नेस में उनका साथ देता है।

आज मीरा, सीमेंट का होलसेल और रिटेल दोनों बिज़नेस संभालती हैं। समय एक बार फिर बदल गया है, और इसे बदलने का श्रेय जाता है मीरा के संघर्ष और हार न मानने के जज्बे को।

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